Friday, January 15, 2010

अभाव से या स्‍वभाव से

आप ड्राडविंग सीट पर शांति से बैठ जाइये। ..... स्टीयरिंग को नहीं छूना है। केवल वह बटन दबाइये। .... यह क्या !!!.... कार का स्टी यरिंग अपने आप घूमने लगा ! कुछ दायें! कुछ बायें ! कार ने खुद को एडजस्ट किया और दो कारों के बीच की संकरी सी पार्किंग में इस तरह फिट हो गई मानो उठाकर रख दी गई हो। ..... दुनिया के सबसे बड़़े आटोतकनीक शो ‘आटोमेकेनिका’ में पिछले साल एक जर्मन अपनी खरखराती अंग्रेजी में बता रहा था कि यह आटोमेटिक पार्किंग सिस्ट म है। बटन दबाइये और एंटी कोलिजन (भिड़ंत रोकने वाले) सेंसर से लैस बम्प र वाली कार बगैर ठुके और रगड़े आपकी संकरी पार्किंग में इस तरह बैठ जाएगी जैसे कि मोबाइल में बैटरी। यह कल्पना की कलाबाजी नहीं है, भारत के बाजार में अगले साल वह कारें आ जाएंगी जो खुद ब खुद नाच कूद कर पार्किंग में बैठ जाएंगी। मगर...... अफसोस तब भी किसी सराय भूपत या फिरोजाबाद में ट्रेनों का घातक मिलन चलता रहेगा और लोग मौत के सफर पर निकलते रहेंगे क्योंा कि ट्रेनों में तब भी एंटी कोलिजन डिवाइस नहीं लग सकेगा। तो पिछड़ापन, असुविधा, उपेक्षा, समस्‍यायें, हादसे..... अभाव का नतीजा हैं या स्‍वभाव का। .... सवाल कठिन है। विकास का गणित कभी-कभी रामानुजम के हिसाब से किताब और क्‍वांटम फिजिक्स से भी जयादा पेचीदा हो जाता है। महज कमी या खालीपन ही असुविधा पैदा नहीं करता, आदतें भी बहुत कुछ उपलब्धा होने के बावजूद बहुत कुछ नहीं होने देतीं। दिल्लीध में ऑटो मेला चल रहा है, यह तकनीक शायद आपको यहां दिख जाए। यह तकनीक मोटे तौर पर उसी एंटी कोलिजन यानी भिड़ंत रोधी प्रणाली पर काम करती है जिसे ट्रेनों में लगाने की बात करते-करते कई रेलमंत्री भूतपूर्व हो गए। ... .टोयोटा ने 2004 में अपनी कार प्रायस को स्वीचालित पार्किंग तकनीक से लैस किया था। फॉक्स।वैगन की टुरान, टिगुआन, पोलो, पिजॉट कारें चलाने वाले बीते साल से इसका इस्तेफमाल कर रहे हैं। मगर भारत को इससे क्‍या ??? अजी साहब भारत को इससे बहुत कुछ लेना देना है ??? कारों पर चलने वाली एक चुटकी भर आबादी पार्किंग में भी अपनी कार महफूज रखेगी मगर रेलों पर चलने वाली करोड़ों की आबादी को पता नहीं उसकी जिंदगी की रेलगाड़ी कब दूसरी ट्रेन में ठुक जाए। ..... ... ताकि सनद रहे ...भारत में ट्रेनों के लिए एंटी कोलिजन डिवाइस अर्से से तैयार पड़ा है। ------- वह दोनों मोबाइल पर घंटों बतियातें हैं। दफ्तर की राजनीति से लेकर डील तक सब कुछ मोबाइल के जरिये निबटाते हैं मगर अर्जी लेकर आए एक आदमी की फरियाद प्रॉपर चैनल से ही जाती है। ..... सक्‍सेना जी और शर्मा जी का किस्‍सा आपको नहीं मालूम ? दोनों एक सरकारी दफ्तर के राजा (बाबू) हैं। दोनों के पास ई और पीं ( ई मेल व म्‍यूजिक से लैस) करने वाले मोबाइल हैं। मगर उन्‍हें कसम है कि जो वह अपने मोबाइल धनी होने के गौरव को कभी उनके साथ बांटें जो उनके हुजूर में फरियाद लेकर आते हैं। सकसेना जी दूर गांव से आए प्राइमरी मास्टार की फाइल उसी शहर के दूसरे दफ्तर में बैठे शर्मा जी को प्रॉपर चैनल से भेजते हैं। चैनल अक्‍सर बंद रहता है क्यों कि उसमें महंगा तेल पड़ता है। फाइल भेजने का अहसान करने के बाद सक्‍सेना जी शर्मा जी के साथ फोन पर फिर लग जाते हैं। तो किस्‍सा यह कि तकनीक है, सस्‍ती है, इस्‍तेमाल करना आता है मगर फायदे पहुंचाने का स्वकभाव नहीं है क्यों कि दफ्तर वाले भले ही मोबाइल से लैस हों दफ्तरों के नियम इतिहास के कबाड़खानों की शोभा हैं।
So the other meaning is …..
हमें तो भुगतना है, जब कुछ न हो तब भी और सब कुछ हो तब भी !! . है न?
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