Friday, June 4, 2010

पर्दा है पारदर्शिता का !!!

अन्‍यर्थ
हंफ्री को जानते हैं आप....मैं भी नही जानता.... अगर उसका ब्‍लॉग न पढ़ता। ..... ग्रीस के छोटे से नामालूम ऑर्केस्‍ट्रा में सेलो (वायलिन परिवार का वाद्य) बजाता है क्रिस्‍टोफर हंफ्री। ... इस खूबसूरत देश में बसने के बाद तो हंफ्री तो अपने वतन को भूल सा गया था। ..... आज उसे अपना लंदन बहुत याद आ रहा है। ग्रीस में अब जीना मुहाल है। (हालांकि लंदन में कौन सा अच्‍छा हाल है।)
ग्रीस की सड़कों पर पगलाई भीड़ को देखकर हंफ्री सवालों के झुंड में घिरा है।
उसे समझ में नहीं आता कि चूहे (माउस) पर बैठ कर सेकेंडों में भूमंडल का गणेश चक्‍कर लगाने वाली दुनिया ने वक्‍त पर कयों नहीं चेताती ? वह असमंजस में है कि लाखों किलोमीटर केबल, 100 मिलियन ज्‍यादा सर्वर, पांच मिलियन टेराबाइट से ज्‍यादा का डाटा और हर हफ्ते करीब 500 मिलियन इंटरनेट यूजर्स वाला यह नेटवर्क्‍ड ग्‍लोबल विलेज बेहतर है या वह आदिम गांव अच्‍छा था जहां शेर आने की आहट पर ढोर-डंगरों को बचाने के लिए वक्‍त पर ढोल तो बज उठता था।
वह शायद खुद से पूछ रहा है कि ...
पहरेदार (क्रेडिट रेटिंग एजेंसिया और ऑडिटर) अक्‍सर चोरों के स्‍कूल में पार्टटाइम पढ़ाते क्‍यों पाए जाते हैं ???
नियम कानून वाले (नियामक व सरकार) हादसों के बाद ही हड़बड़ाकर जागते क्‍यों नजर आते हैं ???
विशेषज्ञों के ज्ञान बल्‍ब अक्‍सर मौके पर क्‍यों फ्यूज हो जाते हैं ???
मीडिया के अलार्म हमेशा सुर्खियां बनने के बाद ही क्‍यों बजते हैं ???
हंफ्री बेचारा सुरों की दुनिया का है शेयरों की दुनिया नहीं। .... उसे नहीं मालूम कि आदमी की खोपड़ी गजब की अबूझ है। मनोविज्ञानी, समाजशास्‍त्री और आर्थिक व्‍यवहार (behavioral economics ) वाले तरह तरह के मनोविकारों (cognitive bias) का हल निकालने के लिए जाने कब से इंसान के दिमाग की अंधी गलियों में भटक रहे हैं। मगर यह नहीं जान पाते तकनीक से लैस ज्ञानी गुणी आदमी हमेशा अपनी आदिम आदतों के कोटर में क्‍यों छिप जाता है ?
सन्‍नाटे की साजिश
दुनिया बड़ी चुप्‍पा है। ब्‍लॉगों पर बड़बड़ाने वाली, ट्विटर पर चिचियाने वाली और फेसबुकों व आरकुटों पर बिछ जाने वाली यह दुनिया हमेशा गलत मौके पर सन्‍नाटा खींच जाती है। अमेरिका के बैंक डूबेंगे या यूरोप की बर्बादी की राह पर है यह किसे नहीं मालूम था ?? चालाक निवेश बैंकरों से लेकर, वित्‍तीय सुधारों के ठेकेदार विश्‍व बैंक व मुद्रा कोष तक हर कोई सब कुछ जानता था मगर वक्‍त पर कोई कौआ नहीं बोला। जनसंचार और राजनीति शास्‍त्र की दुनिया इस मनोविकार को Spiral of silence कहती है। यानी सन्‍नाटे की साजिश। जिसमें मौके पर चुप्‍पी नियम में बन जाती है। इसी परिवार के एक और मनोविकार ने हमेशा से आर्थिक बाजारों का जीना हराम कर रखा है। यह False consensus effect है। यानी मनगढ़ंत सहमति। सबको लगता है जो हो रहा है वही ठीक है। बात बढ़ते बढ़ते Base rate fallacy नामक भ्रम तक चली जाती है जिसमें अपने निष्‍कर्षों के लिए तथ्‍यों को ही नकार दिया जाता है। .... इसलिए तो दुनिया अतीत के अनुभवों को नकारते हुए हमेशा यह कहती है कि नहीं... This time is different. ....
भेड़ बनने का शगल
जानवर बनना आदमी का पुराना शौक है। वित्‍तीय बाजार इस शौक को पूरा करने का मौका देते हैं। यहां तो आए दिन आ‍दमियों के झुंड बन जाते हैं। यानी मनोविज्ञान की जबान में Herd behavior। भेड़ जैसे आदमियों ने दुनिया में अक्‍सर वित्‍तीय संकटों को चौगुना कर दिया है लेकिन कोई करे भी क्‍या जब पूरी भीड़ का दिमाग एक तरफ दौड़ पड़े यानी कि swarm intelligence. कभी पालकी को उठाने की होड़ तो कभी पटकने की प्रतिस्‍पर्धा। जो भीड़ कल यूरोप को सुरक्षित मान रही थी आज वही लोग यूरोप में संकट का बैंड बजा रहे हैं यानी Bandwagon effect…… दरअसल मनोविज्ञान की निगाह में वित्‍तीय बाजार हमेशा एक खास किस्‍म के अज्ञान का शिकार होता है जिसे pluralistic ignorance कहते हैं। यानी कि सामूहिक अज्ञान.... दुनिया के सबसे काबिल कारो‍बारियों की यह साझा मूर्खता बड़ी मजेदार है।
सच की ओट
तकनीक से दोस्‍ती के बाद दुनिया ज्‍यादा पारदर्शी हो गई है या ज्‍यादा गोपनीय? पता नहीं लेकिन वित्‍तीय हादसे बताते हैं कि दुनिया में पारदर्शिता से कहीं ज्‍यादा इसके होने का भ्रम है अर्थात मनोविज्ञान की जबान में illusion of transparency । ऐसा लगता है कि दुनिया उतनी ईमानदार नहीं है जितना कि लोग समझ बैठे हैं। वित्‍तीय बाजार के महासागरों में तैरते हुए सबको लगता है कि कोई न कोई गलत करने वालों पर नजर रख रहा है। कोई तो है जिसे हर स्‍याह सफेद की जानकारी है। वह मसीहा मौके पर आकर सब बिखरने से रोक से लेगा। यही तो वह optimism bias है जिसके कारण लोगो ने वित्‍तीय बाजारों में बड़ी कीमत चुकाई है। यही तो उन्‍हें momentum investing, gambler fallacy, anchoring में उलझाता है जो कि वित्‍तीय व्‍यवहार की सबसे पुरानी विसंगतियां हैं।
हंफ्री जैसे तमाम लोगों ने वित्‍तीय संकटों के बाद अपने गरेबान पकड़कर खुद से यह बार-बार पूछा है ...
यह कैसी सूचना आधारित दुनिया है जिसमें असली सूचना ही खो जाती है ???
यह कैसी पारदर्शिता है, जिसमें हर धतकरम छिप जाता है ??
यह कैसी इंटीग्रेटेड दुनिया है जो चेतावनियां नहीं बल्कि आपस में संकट बांटती है। ??
..... वैसे मजा देखिये कि यह पूछने वाले लोग भी एक मनोविकार या भ्रम के शिकार हैं जिसे सामाजिक मनोविज्ञान just world phenomena कहता है। यानी कि गजब की सदाशयता। अर्थात सब कुछ ठीक ही होने की उम्‍मीद। ..... काश कि वित्‍तीय दुनिया इतनी भली होती। इसमें इतनी बेफिक्री अच्‍छी नहीं। यहां सशंकित रहना ज्‍यादा ठीक है।
..... So the other meaning is
पारदर्शिता में बहुत कुछ छिपता है। ....क्‍यों कि कभी कभी रोशनी की चमक में कुछ भी नहीं दिखता है।

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