Friday, June 4, 2010

पर्दा है पारदर्शिता का !!!

अन्‍यर्थ
हंफ्री को जानते हैं आप....मैं भी नही जानता.... अगर उसका ब्‍लॉग न पढ़ता। ..... ग्रीस के छोटे से नामालूम ऑर्केस्‍ट्रा में सेलो (वायलिन परिवार का वाद्य) बजाता है क्रिस्‍टोफर हंफ्री। ... इस खूबसूरत देश में बसने के बाद तो हंफ्री तो अपने वतन को भूल सा गया था। ..... आज उसे अपना लंदन बहुत याद आ रहा है। ग्रीस में अब जीना मुहाल है। (हालांकि लंदन में कौन सा अच्‍छा हाल है।)
ग्रीस की सड़कों पर पगलाई भीड़ को देखकर हंफ्री सवालों के झुंड में घिरा है।
उसे समझ में नहीं आता कि चूहे (माउस) पर बैठ कर सेकेंडों में भूमंडल का गणेश चक्‍कर लगाने वाली दुनिया ने वक्‍त पर कयों नहीं चेताती ? वह असमंजस में है कि लाखों किलोमीटर केबल, 100 मिलियन ज्‍यादा सर्वर, पांच मिलियन टेराबाइट से ज्‍यादा का डाटा और हर हफ्ते करीब 500 मिलियन इंटरनेट यूजर्स वाला यह नेटवर्क्‍ड ग्‍लोबल विलेज बेहतर है या वह आदिम गांव अच्‍छा था जहां शेर आने की आहट पर ढोर-डंगरों को बचाने के लिए वक्‍त पर ढोल तो बज उठता था।
वह शायद खुद से पूछ रहा है कि ...
पहरेदार (क्रेडिट रेटिंग एजेंसिया और ऑडिटर) अक्‍सर चोरों के स्‍कूल में पार्टटाइम पढ़ाते क्‍यों पाए जाते हैं ???
नियम कानून वाले (नियामक व सरकार) हादसों के बाद ही हड़बड़ाकर जागते क्‍यों नजर आते हैं ???
विशेषज्ञों के ज्ञान बल्‍ब अक्‍सर मौके पर क्‍यों फ्यूज हो जाते हैं ???
मीडिया के अलार्म हमेशा सुर्खियां बनने के बाद ही क्‍यों बजते हैं ???
हंफ्री बेचारा सुरों की दुनिया का है शेयरों की दुनिया नहीं। .... उसे नहीं मालूम कि आदमी की खोपड़ी गजब की अबूझ है। मनोविज्ञानी, समाजशास्‍त्री और आर्थिक व्‍यवहार (behavioral economics ) वाले तरह तरह के मनोविकारों (cognitive bias) का हल निकालने के लिए जाने कब से इंसान के दिमाग की अंधी गलियों में भटक रहे हैं। मगर यह नहीं जान पाते तकनीक से लैस ज्ञानी गुणी आदमी हमेशा अपनी आदिम आदतों के कोटर में क्‍यों छिप जाता है ?
सन्‍नाटे की साजिश
दुनिया बड़ी चुप्‍पा है। ब्‍लॉगों पर बड़बड़ाने वाली, ट्विटर पर चिचियाने वाली और फेसबुकों व आरकुटों पर बिछ जाने वाली यह दुनिया हमेशा गलत मौके पर सन्‍नाटा खींच जाती है। अमेरिका के बैंक डूबेंगे या यूरोप की बर्बादी की राह पर है यह किसे नहीं मालूम था ?? चालाक निवेश बैंकरों से लेकर, वित्‍तीय सुधारों के ठेकेदार विश्‍व बैंक व मुद्रा कोष तक हर कोई सब कुछ जानता था मगर वक्‍त पर कोई कौआ नहीं बोला। जनसंचार और राजनीति शास्‍त्र की दुनिया इस मनोविकार को Spiral of silence कहती है। यानी सन्‍नाटे की साजिश। जिसमें मौके पर चुप्‍पी नियम में बन जाती है। इसी परिवार के एक और मनोविकार ने हमेशा से आर्थिक बाजारों का जीना हराम कर रखा है। यह False consensus effect है। यानी मनगढ़ंत सहमति। सबको लगता है जो हो रहा है वही ठीक है। बात बढ़ते बढ़ते Base rate fallacy नामक भ्रम तक चली जाती है जिसमें अपने निष्‍कर्षों के लिए तथ्‍यों को ही नकार दिया जाता है। .... इसलिए तो दुनिया अतीत के अनुभवों को नकारते हुए हमेशा यह कहती है कि नहीं... This time is different. ....
भेड़ बनने का शगल
जानवर बनना आदमी का पुराना शौक है। वित्‍तीय बाजार इस शौक को पूरा करने का मौका देते हैं। यहां तो आए दिन आ‍दमियों के झुंड बन जाते हैं। यानी मनोविज्ञान की जबान में Herd behavior। भेड़ जैसे आदमियों ने दुनिया में अक्‍सर वित्‍तीय संकटों को चौगुना कर दिया है लेकिन कोई करे भी क्‍या जब पूरी भीड़ का दिमाग एक तरफ दौड़ पड़े यानी कि swarm intelligence. कभी पालकी को उठाने की होड़ तो कभी पटकने की प्रतिस्‍पर्धा। जो भीड़ कल यूरोप को सुरक्षित मान रही थी आज वही लोग यूरोप में संकट का बैंड बजा रहे हैं यानी Bandwagon effect…… दरअसल मनोविज्ञान की निगाह में वित्‍तीय बाजार हमेशा एक खास किस्‍म के अज्ञान का शिकार होता है जिसे pluralistic ignorance कहते हैं। यानी कि सामूहिक अज्ञान.... दुनिया के सबसे काबिल कारो‍बारियों की यह साझा मूर्खता बड़ी मजेदार है।
सच की ओट
तकनीक से दोस्‍ती के बाद दुनिया ज्‍यादा पारदर्शी हो गई है या ज्‍यादा गोपनीय? पता नहीं लेकिन वित्‍तीय हादसे बताते हैं कि दुनिया में पारदर्शिता से कहीं ज्‍यादा इसके होने का भ्रम है अर्थात मनोविज्ञान की जबान में illusion of transparency । ऐसा लगता है कि दुनिया उतनी ईमानदार नहीं है जितना कि लोग समझ बैठे हैं। वित्‍तीय बाजार के महासागरों में तैरते हुए सबको लगता है कि कोई न कोई गलत करने वालों पर नजर रख रहा है। कोई तो है जिसे हर स्‍याह सफेद की जानकारी है। वह मसीहा मौके पर आकर सब बिखरने से रोक से लेगा। यही तो वह optimism bias है जिसके कारण लोगो ने वित्‍तीय बाजारों में बड़ी कीमत चुकाई है। यही तो उन्‍हें momentum investing, gambler fallacy, anchoring में उलझाता है जो कि वित्‍तीय व्‍यवहार की सबसे पुरानी विसंगतियां हैं।
हंफ्री जैसे तमाम लोगों ने वित्‍तीय संकटों के बाद अपने गरेबान पकड़कर खुद से यह बार-बार पूछा है ...
यह कैसी सूचना आधारित दुनिया है जिसमें असली सूचना ही खो जाती है ???
यह कैसी पारदर्शिता है, जिसमें हर धतकरम छिप जाता है ??
यह कैसी इंटीग्रेटेड दुनिया है जो चेतावनियां नहीं बल्कि आपस में संकट बांटती है। ??
..... वैसे मजा देखिये कि यह पूछने वाले लोग भी एक मनोविकार या भ्रम के शिकार हैं जिसे सामाजिक मनोविज्ञान just world phenomena कहता है। यानी कि गजब की सदाशयता। अर्थात सब कुछ ठीक ही होने की उम्‍मीद। ..... काश कि वित्‍तीय दुनिया इतनी भली होती। इसमें इतनी बेफिक्री अच्‍छी नहीं। यहां सशंकित रहना ज्‍यादा ठीक है।
..... So the other meaning is
पारदर्शिता में बहुत कुछ छिपता है। ....क्‍यों कि कभी कभी रोशनी की चमक में कुछ भी नहीं दिखता है।

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Saturday, May 15, 2010

मां का लाडला बिगड़ गया !

तो नई उमर और ऊपर से पैसे का असर !…. बुरा मत मानियो, बिगड़ना तो था ही। वक्‍त पर संभाला नहीं, अब भुगतो। ….. सत्‍तर साल का पका अनुभव बोल रहा था, मेरे पड़ोस में। दस नंबर वाली दादी एक नए नए अमीर हुए रिश्‍तेदार के बिगड़ते बच्‍चों को लेकर एक दूसरे रिश्‍तेदार को नसीहतें भेज रही थीं… सामने टीवी पर इंडियन पैसा लीग के धतकरम की अनंत कथा चल रही थी। . दादी की नसीहत बड़ी मौजूं लगी। उन्‍होंने अपने घर की बात के बहाने आईपीएल का एक नया अन्‍यर्थ उघाड़ दिया था।
….. एक तो चढती अर्थव्‍यवस्‍था का खुमार, ऊपर से मुनाफों का अंबार, साथ में खर्चवीर नई पीढ़ी का झूमता बाजार….. कंपनियों का बिगड़ना तो तय था। बीस साल की जवान भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था उत्‍साह में उछल रही है। आईपीएल में फहराती कारपोरेट ध्‍वजपताकायें अर्थव्‍यवस्‍था के इसी नए जोश पर सवार होकर ऊपर उठी हैं। इंडिया सीमेंट, किंगफिशर, जीएमआर, या रिलायंस (सभी आईपीएल फ्रेंचाइजी मालिक) हों या आईपीएल के घोड़ों, माफ कीजिये, खिलाडि़यों पर चिपके .नोकिया, कोक, एडिडास, वोडाफोन, नाइकी जैसे ब्रांड !!!….. इन सभी की सबसे अच्‍छी कहानी पिछले बीस साल में बनी है। खूब कमाते और खूब खर्चते नए भारतीय उपभोक्‍ताओं इन्‍हें सर आंखों पर बिठाया और इनकी झोलियां मुनाफे के आशीर्वाद भर दीं। आईपीएल भारत की इन्‍हीं शानदार बाजार कथाओं का महोत्‍सव है।
कभी एक कैरी पैकर पीछे पड़ गई दुनिया को भारत ने एक दर्जन कैरी पैकर दे दिये हैं। मगर इसमें अफसोस क्‍या और हिचक कैसी ??… अरे भई, जिसने बाजार के साथ दौड़ लगाई, कमाई उसके घर आई। और जो कमायेगा, वह आगे ज्‍यादा कमाने की जुगत जरुर भिड़ायेगा। …. इस बहस में अपना खून मत जलाइये कि इन्‍होंने इतना कैसे कमाया ? बल्कि इस बात पर हैरत दिखाइये कि इन्‍हें कमाई लगाने के लिए यही तमाशा क्‍यों नजर आया ? भारत तो अभाव का बाजार है। यहां हर चीज की अनंत कमी है मांग है, दरकार है, यानी कि मुनाफा है कारोबार है। …. तो साफ सुथरी कमाई के उफनते सोते छोड़ कर कंपनियां क्‍लबबाजी के कीचड़ में क्‍यों फंस गईं ? … यहीं पर असली लोचा है। …. भारत में एक बिजली संयंत्र लगाने में कंपनी को पूर्वज याद आ जाते हैं लेकिन आईपीएल की फ्रेंचाइजी कुछ घंटों में खड़ी हो जाती है। एक सैकड़ा से भी कम ई मेल से एक पूरा आईपीएल क्‍लब निकल आता है पर एक सड़क परियोजना के लिए फाइलों का एवरेस्‍ट का खड़ा हो जाता है। …..उफ, यह सरकारी लाल फीता !…. काश यह बीच में न आया होता।
बूढ़े पंडित जी कहते थे धन की तीन गतियां (प्रयोग) होती हैं।…. दान, भोग और नाश। तुलसी की चौपाई भी सुनाते थे…. सो धन धन्‍य प्रथम गति जाकी..… खैर, इसे जाने दीजिये पुरानी बात है, नई इकोनॉमी बात करिये। मगर इस कमबख्‍त नई सोच में भी धन की तीन ही गतियां (प्रयोग) है। पहली गति… पैसा अगर उद्योग में जाए तो रोटी, रोजगार लाता है यानी ऐसी अमीरी जो सबसे बंट सके। दूसरी गति…. पूंजी बाजार के एडवेंचर स्‍पोटृर्स में गया पैसा चुटकियों में अमीरी का एक्‍साइटमेंट लाता है लेकिन ठहरिये और पलक झपकते बर्बादी के जोखिम का डिस्‍क्‍लेमर भी पढ़ लीजिये। और तीसरी गति… जब कमाई क्‍लब खरीदने से लेकर खिलाड़ी और घोड़े खरीदने में जाती है तो कभी न कभी कलंक और शर्मिंदगी की नौबत आ ही जाती है।
उदार अर्थव्‍यवस्‍था के लाड़ले हैं निजी उद्योग और कंपनियां। नया नया बाजार और शानदार कमाई। कदम बहकने का पूरा इंतजाम था। आखिर कमाई को लेकर कोई सो नहीं जाता। पैसा अपने लिए कोई न कोई राह तो बनाता ही है। (money is neither god nor devil. It is a form of energy that tends to make us more of who we already are, whether it’s greedy or loving…… Dan Millman) …..सो पैसे ने अपनी राह बना ली। उदारीकरण के राजकुमारों को फैक्‍ट्री लगानी थीं, लेकिन इन्‍होंने क्‍लब बना दिये। इन्‍हें भारतीय प्रतिभाओं को रोजगार देना था मगर इन्‍होंने क्रिकेटर खरीद लिये। क्‍लब, रेस, जुआ, समृद्ध मुल्‍कों, सरप्‍लस अर्थव्‍यवस्‍थाओं और भरे पूरे बाजारों के निवेश व्‍यसन हैं। भारत जैसी तीसरी दुनिया की कंपनियां, विकास की दूसरी दुनिया बसाये बगैर ही पहली दुनिया के व्‍यसनों में उलझ गईं हैं।
…हीर मिली न इसनू, यह रांझे उत्‍थे मर गया, गोरा चिट्टा मुखड़ा देखो काला कर गया। …. मा दा लाडला बिगड़ गया।
दादी ठीक कहती हैं… बुरा मत मानियो, बिगड़ना तो था ही। मगर अभी तो शुरुआत है। बाजार झूम रहा है। नई इकोनॉमी के यह लाड़ले अभी और कमायेंगे। यानी कि कदम बहकने के खतरे बार बार आएंगे। सरकार जी, अपने दुलारों को संभालिये। इन्‍हें कमाने का नहीं बल्कि खर्च करने का रास्‍ता बताइये। इनकी कमाई विकास की खाद बनी तो काम आएगी नहीं इनकी समृद्धि से आए दिन घोटालों की दुर्गंध आएगी।
The other meaning is
Money is like manure, you may have to spread it around or it smells …. !!

Saturday, March 27, 2010

आम जैसा आदमी

तरह के जीवों (योनिज, अंडज, उद्भिज, जरायुज), फल-फूल, लता-पत्रा, छाल-शैवाल, काई-सेवार और बीज-कंद में सिर्फ आदमी ही आम जैसा होता है। रंग बदलने वाला खरबूजा, भीतर से बहुत सी फांकों वाला संतरा, टूटने पर ही खुलने वाला नारियल और दूर से खट्टा दिखने वाला अंगूर अपने चरित्र में कुछ फीसदी आदमी जैसे हो सकते हैं मगर आम ! वह तो बौराने, टिकोरा बनने से लेकर गद्दर होने, पकने, टूटने, घुलने, निचुड़ने, सूखने, सड़ने और फिर अंखुआने तक आदमी का लंगोटिया यार और गुणात्मक रिश्तेदार है। हर आदमी कभी न कभी जरुर बौराता है….. बसंत और बौर का रिश्ता़ तो कालिदासी है। दरअसल यह गरमी का बौराना है। तमाम आम (आदमी) पेड़ों पर कोयलों का मनोरंजन बन कर खत्म हो जाते हैं यानी सिर्फ बौराकर झड़ जाते हैं। कुछ आम (आदमी) बौर से आगे बढ़ जाते हैं। टिकोरा बनते हैं, लटक जाते हैं, पेड़ पर टंगे नजर आते हैं। बच्चों। के पत्थर खाते हैं, आंधी में झूमझाम कर जमीन पर लहालोट हो जाते है। और आखिर में पुदीने, धनिये के साथ पिस कर चटनी स्वरुप होते हुए पेट में समा जाते हैं। ऐसे आम (आदमी) गरमी का असर कम करने में बहुत काम आते हैं। कुछ आम (आदमी) गद्दर कहलाते हैं। जमीन पर गिरकर भी बच जाते हैं। गूदा, ताकत दिखाते हैं। वह इसका इनाम भी पाते हैं। यानी कि सबसे बड़े चाकू (आम काटने वाले चाकू) के नीचे कटकर तेल राई मिर्च की मदद से अचार में बदल जाते हैं। ऐसे गूदेदार आम (आदमी) वक्त के मर्तबान में मिलते हैं और सालों साल प्यार से खाये जाते हैं। कुछ आम (आदमी) पक भी जाते हैं या पका लिये जाते हैं। पकने की हिम्मत दिखाने वाले आम (आदमी) कीमती हो जाते हैं। वह तोड़े, घोले, काटे, चूसे और निचोड़े जाते हैं। कुछ तो सुखा कर पपड़ी भी बना लिये जाते हैं। पके हुए आम (आदमी) खास किस्मा का स्वाद जगाते हैं। बजटों ने इसी आम जैसे आदमी को निचोड़ा है और गुठली को फिर उगने के लिए छोड़ा है। क्यों कि यह कमबख्त आम (आदमी) ही है जो कि निचुड़ने के बाद सड़ी गुठली से भी अंखुआ आता है। आम जैसा आदमी फिर अंखुआएगा, बौरायेगा, गदरायेगा, पत्थर खायेगा, सड़ेगा, पकेगा और चूसा जाएगा। इसलिए ही तो फलों व जानवरों में सिरमौर है …. बेचारा आम-आदमी!
So the other meaning is
आम आदमी हैं तो आम जैसे ही निभाइये। फलिये-फूलिये निचुडि़ये और चटनी बनते रहिये।
आमीन
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Wednesday, February 10, 2010

मुक्‍त बाजार के बंधुआ

निरे बौड़म साबित हो गए!….. सोचते थे कि मुक्त बाजार मुक्त करता है मगर अब अपने मोबाइल को बिसूर रहे हैं बेचारे बोस बाबू। बाजार ने कब और कैसे उन्हें बंधक बना लिया, पता ही नहीं चला। मोबाइल फोन महंगा है, गाना भी सुनाता है फोटो भी खींच लेता है, मगर बात नहीं हो पाती। हरी बटन दबाते ही सिग्नल खो जाता है। ….. कल पुरानी सहेली की बरसों बाद आई कॉल के बीच सिग्नल इतनी बार टूटा कि बोस बाबू टूट से गए। फोन तोड़ने फेंकने की नौबत आ गई। मन हुआ कि इस ‘वो. .फो..न’ वाले का या उस ‘… टेल’ वाले का टेंटुआ दबा दें। .. मगर मिले तब न। फोन नंबर की गुलामी बड़ी कष्ट दायक है। पुरानी सहेली से लेकर नई पड़ोसन तक सबके पास यही नंबर है। बोस बाबू सोचते थे कि जल्द ही उन्हें इन फोन वालों को सबक सिखाने का मौका मिल जाएगा। नंबर नहीं बदलेगा और वह मनचाही कंपनी चुन लेंगे। मगर अफसोस उनकी यह उम्मीद भी जाती रही है। मुक्त बाजार के महारथियों ने नंबर पोर्टेबिलिटी टलवा दी है। समाजवादियों से बेजार बोस बाबू विकट बाजारवादी रहे हैं। लाइसेंस परमिट राज और बंद दरवाजों वाली अर्थव्यबवस्था के जानी दुश्मन। बाजार को मुक्तिदाता मानते हैं। उदार बाजार के फायदों पर लंबे लेक्चर पिला सकते हैं। मगर अब खुद ही उदार बाजार के बंधुआ हो गए हैं। उन्हें पता ही नहीं था कि खुला बाजार हमेशा मुक्त नहीं करता बल्कि कई बार तरह जकड़ भी देता है। पुरानी अर्थव्यवस्था में एक कंपनी बंधक बनाती थी अब कई मिलकर गुलामी कराती हैं। बाजार का खेल जब सरकार के खेल से बड़ा हो जाता है, तब सरकार को भी इसमें मजा आता है। तमाम तरह के मकर भुजंगों से भरा मुक्त बाजार का यह महासागर बड़ा मायावी है। इस महासागर के जंतुओं के पास पास नाना प्रकार की शक्तियां ( cartelization, predatory pricing, market rigging, oligopoly) हैं जिनसे बचने का मंत्र मिलना बड़ा मुश्किल है। बाजार की गुलामी अदृश्‍य है। मुक्त बाजार आदतों में बांधता है और फिर अपनी ताल पर नचाता है। अब सौ में दस कॉल लगें या पांच, नेटवर्क मिले या नहीं मोबाइल फोन के माया बंध से मुक्ति असंभव है, यह तो शरीर से चिपका ही रहेगा।बोस बाबू आजाद बाजार में सबसे बड़े गुलाम हैं।….. मुक्ति का कोई ‘आइडिया’ उनके पास नहीं है।
So the other meaning is…….
मुक्त बाजार मुस्कराते हुए गुलामी कराता है।…. कर रहे हैं न ?
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Friday, January 15, 2010

अभाव से या स्‍वभाव से

आप ड्राडविंग सीट पर शांति से बैठ जाइये। ..... स्टीयरिंग को नहीं छूना है। केवल वह बटन दबाइये। .... यह क्या !!!.... कार का स्टी यरिंग अपने आप घूमने लगा ! कुछ दायें! कुछ बायें ! कार ने खुद को एडजस्ट किया और दो कारों के बीच की संकरी सी पार्किंग में इस तरह फिट हो गई मानो उठाकर रख दी गई हो। ..... दुनिया के सबसे बड़़े आटोतकनीक शो ‘आटोमेकेनिका’ में पिछले साल एक जर्मन अपनी खरखराती अंग्रेजी में बता रहा था कि यह आटोमेटिक पार्किंग सिस्ट म है। बटन दबाइये और एंटी कोलिजन (भिड़ंत रोकने वाले) सेंसर से लैस बम्प र वाली कार बगैर ठुके और रगड़े आपकी संकरी पार्किंग में इस तरह बैठ जाएगी जैसे कि मोबाइल में बैटरी। यह कल्पना की कलाबाजी नहीं है, भारत के बाजार में अगले साल वह कारें आ जाएंगी जो खुद ब खुद नाच कूद कर पार्किंग में बैठ जाएंगी। मगर...... अफसोस तब भी किसी सराय भूपत या फिरोजाबाद में ट्रेनों का घातक मिलन चलता रहेगा और लोग मौत के सफर पर निकलते रहेंगे क्योंा कि ट्रेनों में तब भी एंटी कोलिजन डिवाइस नहीं लग सकेगा। तो पिछड़ापन, असुविधा, उपेक्षा, समस्‍यायें, हादसे..... अभाव का नतीजा हैं या स्‍वभाव का। .... सवाल कठिन है। विकास का गणित कभी-कभी रामानुजम के हिसाब से किताब और क्‍वांटम फिजिक्स से भी जयादा पेचीदा हो जाता है। महज कमी या खालीपन ही असुविधा पैदा नहीं करता, आदतें भी बहुत कुछ उपलब्धा होने के बावजूद बहुत कुछ नहीं होने देतीं। दिल्लीध में ऑटो मेला चल रहा है, यह तकनीक शायद आपको यहां दिख जाए। यह तकनीक मोटे तौर पर उसी एंटी कोलिजन यानी भिड़ंत रोधी प्रणाली पर काम करती है जिसे ट्रेनों में लगाने की बात करते-करते कई रेलमंत्री भूतपूर्व हो गए। ... .टोयोटा ने 2004 में अपनी कार प्रायस को स्वीचालित पार्किंग तकनीक से लैस किया था। फॉक्स।वैगन की टुरान, टिगुआन, पोलो, पिजॉट कारें चलाने वाले बीते साल से इसका इस्तेफमाल कर रहे हैं। मगर भारत को इससे क्‍या ??? अजी साहब भारत को इससे बहुत कुछ लेना देना है ??? कारों पर चलने वाली एक चुटकी भर आबादी पार्किंग में भी अपनी कार महफूज रखेगी मगर रेलों पर चलने वाली करोड़ों की आबादी को पता नहीं उसकी जिंदगी की रेलगाड़ी कब दूसरी ट्रेन में ठुक जाए। ..... ... ताकि सनद रहे ...भारत में ट्रेनों के लिए एंटी कोलिजन डिवाइस अर्से से तैयार पड़ा है। ------- वह दोनों मोबाइल पर घंटों बतियातें हैं। दफ्तर की राजनीति से लेकर डील तक सब कुछ मोबाइल के जरिये निबटाते हैं मगर अर्जी लेकर आए एक आदमी की फरियाद प्रॉपर चैनल से ही जाती है। ..... सक्‍सेना जी और शर्मा जी का किस्‍सा आपको नहीं मालूम ? दोनों एक सरकारी दफ्तर के राजा (बाबू) हैं। दोनों के पास ई और पीं ( ई मेल व म्‍यूजिक से लैस) करने वाले मोबाइल हैं। मगर उन्‍हें कसम है कि जो वह अपने मोबाइल धनी होने के गौरव को कभी उनके साथ बांटें जो उनके हुजूर में फरियाद लेकर आते हैं। सकसेना जी दूर गांव से आए प्राइमरी मास्टार की फाइल उसी शहर के दूसरे दफ्तर में बैठे शर्मा जी को प्रॉपर चैनल से भेजते हैं। चैनल अक्‍सर बंद रहता है क्यों कि उसमें महंगा तेल पड़ता है। फाइल भेजने का अहसान करने के बाद सक्‍सेना जी शर्मा जी के साथ फोन पर फिर लग जाते हैं। तो किस्‍सा यह कि तकनीक है, सस्‍ती है, इस्‍तेमाल करना आता है मगर फायदे पहुंचाने का स्वकभाव नहीं है क्यों कि दफ्तर वाले भले ही मोबाइल से लैस हों दफ्तरों के नियम इतिहास के कबाड़खानों की शोभा हैं।
So the other meaning is …..
हमें तो भुगतना है, जब कुछ न हो तब भी और सब कुछ हो तब भी !! . है न?
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