Wednesday, February 10, 2010

मुक्‍त बाजार के बंधुआ

निरे बौड़म साबित हो गए!….. सोचते थे कि मुक्त बाजार मुक्त करता है मगर अब अपने मोबाइल को बिसूर रहे हैं बेचारे बोस बाबू। बाजार ने कब और कैसे उन्हें बंधक बना लिया, पता ही नहीं चला। मोबाइल फोन महंगा है, गाना भी सुनाता है फोटो भी खींच लेता है, मगर बात नहीं हो पाती। हरी बटन दबाते ही सिग्नल खो जाता है। ….. कल पुरानी सहेली की बरसों बाद आई कॉल के बीच सिग्नल इतनी बार टूटा कि बोस बाबू टूट से गए। फोन तोड़ने फेंकने की नौबत आ गई। मन हुआ कि इस ‘वो. .फो..न’ वाले का या उस ‘… टेल’ वाले का टेंटुआ दबा दें। .. मगर मिले तब न। फोन नंबर की गुलामी बड़ी कष्ट दायक है। पुरानी सहेली से लेकर नई पड़ोसन तक सबके पास यही नंबर है। बोस बाबू सोचते थे कि जल्द ही उन्हें इन फोन वालों को सबक सिखाने का मौका मिल जाएगा। नंबर नहीं बदलेगा और वह मनचाही कंपनी चुन लेंगे। मगर अफसोस उनकी यह उम्मीद भी जाती रही है। मुक्त बाजार के महारथियों ने नंबर पोर्टेबिलिटी टलवा दी है। समाजवादियों से बेजार बोस बाबू विकट बाजारवादी रहे हैं। लाइसेंस परमिट राज और बंद दरवाजों वाली अर्थव्यबवस्था के जानी दुश्मन। बाजार को मुक्तिदाता मानते हैं। उदार बाजार के फायदों पर लंबे लेक्चर पिला सकते हैं। मगर अब खुद ही उदार बाजार के बंधुआ हो गए हैं। उन्हें पता ही नहीं था कि खुला बाजार हमेशा मुक्त नहीं करता बल्कि कई बार तरह जकड़ भी देता है। पुरानी अर्थव्यवस्था में एक कंपनी बंधक बनाती थी अब कई मिलकर गुलामी कराती हैं। बाजार का खेल जब सरकार के खेल से बड़ा हो जाता है, तब सरकार को भी इसमें मजा आता है। तमाम तरह के मकर भुजंगों से भरा मुक्त बाजार का यह महासागर बड़ा मायावी है। इस महासागर के जंतुओं के पास पास नाना प्रकार की शक्तियां ( cartelization, predatory pricing, market rigging, oligopoly) हैं जिनसे बचने का मंत्र मिलना बड़ा मुश्किल है। बाजार की गुलामी अदृश्‍य है। मुक्त बाजार आदतों में बांधता है और फिर अपनी ताल पर नचाता है। अब सौ में दस कॉल लगें या पांच, नेटवर्क मिले या नहीं मोबाइल फोन के माया बंध से मुक्ति असंभव है, यह तो शरीर से चिपका ही रहेगा।बोस बाबू आजाद बाजार में सबसे बड़े गुलाम हैं।….. मुक्ति का कोई ‘आइडिया’ उनके पास नहीं है।
So the other meaning is…….
मुक्त बाजार मुस्कराते हुए गुलामी कराता है।…. कर रहे हैं न ?
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