हर तरह के जीवों (योनिज, अंडज, उद्भिज, जरायुज), फल-फूल, लता-पत्रा, छाल-शैवाल, काई-सेवार और बीज-कंद में सिर्फ आदमी ही आम जैसा होता है। रंग बदलने वाला खरबूजा, भीतर से बहुत सी फांकों वाला संतरा, टूटने पर ही खुलने वाला नारियल और दूर से खट्टा दिखने वाला अंगूर अपने चरित्र में कुछ फीसदी आदमी जैसे हो सकते हैं मगर आम ! वह तो बौराने, टिकोरा बनने से लेकर गद्दर होने, पकने, टूटने, घुलने, निचुड़ने, सूखने, सड़ने और फिर अंखुआने तक आदमी का लंगोटिया यार और गुणात्मक रिश्तेदार है। हर आदमी कभी न कभी जरुर बौराता है….. बसंत और बौर का रिश्ता़ तो कालिदासी है। दरअसल यह गरमी का बौराना है। तमाम आम (आदमी) पेड़ों पर कोयलों का मनोरंजन बन कर खत्म हो जाते हैं यानी सिर्फ बौराकर झड़ जाते हैं। कुछ आम (आदमी) बौर से आगे बढ़ जाते हैं। टिकोरा बनते हैं, लटक जाते हैं, पेड़ पर टंगे नजर आते हैं। बच्चों। के पत्थर खाते हैं, आंधी में झूमझाम कर जमीन पर लहालोट हो जाते है। और आखिर में पुदीने, धनिये के साथ पिस कर चटनी स्वरुप होते हुए पेट में समा जाते हैं। ऐसे आम (आदमी) गरमी का असर कम करने में बहुत काम आते हैं। कुछ आम (आदमी) गद्दर कहलाते हैं। जमीन पर गिरकर भी बच जाते हैं। गूदा, ताकत दिखाते हैं। वह इसका इनाम भी पाते हैं। यानी कि सबसे बड़े चाकू (आम काटने वाले चाकू) के नीचे कटकर तेल राई मिर्च की मदद से अचार में बदल जाते हैं। ऐसे गूदेदार आम (आदमी) वक्त के मर्तबान में मिलते हैं और सालों साल प्यार से खाये जाते हैं। कुछ आम (आदमी) पक भी जाते हैं या पका लिये जाते हैं। पकने की हिम्मत दिखाने वाले आम (आदमी) कीमती हो जाते हैं। वह तोड़े, घोले, काटे, चूसे और निचोड़े जाते हैं। कुछ तो सुखा कर पपड़ी भी बना लिये जाते हैं। पके हुए आम (आदमी) खास किस्मा का स्वाद जगाते हैं। बजटों ने इसी आम जैसे आदमी को निचोड़ा है और गुठली को फिर उगने के लिए छोड़ा है। क्यों कि यह कमबख्त आम (आदमी) ही है जो कि निचुड़ने के बाद सड़ी गुठली से भी अंखुआ आता है। आम जैसा आदमी फिर अंखुआएगा, बौरायेगा, गदरायेगा, पत्थर खायेगा, सड़ेगा, पकेगा और चूसा जाएगा। इसलिए ही तो फलों व जानवरों में सिरमौर है …. बेचारा आम-आदमी!
So the other meaning is
आम आदमी हैं तो आम जैसे ही निभाइये। फलिये-फूलिये निचुडि़ये और चटनी बनते रहिये।
आमीन
-----